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आ वां॒ रथं॑ पुरुमा॒यं म॑नो॒जुवं॑ जी॒राश्वं॑ य॒ज्ञियं॑ जी॒वसे॑ हुवे। स॒हस्र॑केतुं व॒निनं॑ श॒तद्व॑सुं श्रुष्टी॒वानं॑ वरिवो॒धाम॒भि प्रय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāṁ ratham purumāyam manojuvaṁ jīrāśvaṁ yajñiyaṁ jīvase huve | sahasraketuṁ vaninaṁ śatadvasuṁ śruṣṭīvānaṁ varivodhām abhi prayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वा॒म्। रथ॑म्। पु॒रु॒ऽमा॒यम्। म॒नः॒ऽजुव॑म्। जी॒रऽअ॑श्वम्। य॒ज्ञिय॑म्। जी॒वसे॑। हु॒वे॒। स॒हस्र॑ऽकेतुम्। व॒निन॑म्। श॒तत्ऽव॑सुम्। श्रु॒ष्टी॒ऽवान॑म्। व॒रि॒वः॒ऽधाम्। अ॒भि। प्रयः॑ ॥ १.११९.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकसौ उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर स्त्री-पुरुष कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्ते, यह उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे समस्त गुणों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! (प्रयः) प्रीति करनेवाला मैं (जीवसे) जीवने के लिये (वाम्) तुम दोनों का (पुरुमायम्) बहुत बुद्धि से बनाया हुआ (जीराश्वम्) जिससे प्राणधारी जीवों को प्राप्त होता वा उनको इकट्ठा करता (यज्ञियम्) जो यज्ञ के देश को जाने योग्य (सहस्रकेतुम्) जिसमें सहस्रों झंडी लगी हों (शतद्वसुम्) सैकड़ों प्रकार के धन (वनिनम्) और बहुत जल विद्यमान हों (श्रुष्टीवानम्) जो शीघ्रचालियों को चलता हुआ (मनोजुवम्) मन के समान वेगवाला (वरिवोधाम्) जिससे मनुष्य सुख सेवन को धारण करता (रथम्) उस मनोहर विमान आदि यान की (अभ्याहुवे) सब प्रकार प्रशंसा करता हूँ ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पिछले सूक्त के अन्तिम मन्त्र से (अश्विना) इस पद की अनुवृत्ति आती है। अच्छा यत्न करते हुए विद्वान् शिल्पी जनों ने जो चाहा हो तो जैसा कि सब गुणों से युक्त विमान आदि रथ इस मन्त्र में वर्णन किया वैसा बन सके ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे अश्विना प्रयोऽहं जीवसे वां युवयोः पुरुमायं जीराश्वं यज्ञियं सहस्रकेतुं शतद्वसुं वनिनं श्रुष्टीवानं मनोजुवं वरिवोधां रथमभ्याहुवे ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वाम्) युवयोः स्त्रीपुरुषयोः (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (पुरुमायम्) पूर्व्या मायया प्रज्ञया संपादितम् (मनोजुवम्) मनोवद्वेगवन्तम् (जीराश्वम्) जीरान् जीवान् प्राणधारकानश्नुते येन तम् (यज्ञियम्) यज्ञयोग्यं देशं गन्तुमर्हम् (जीवसे) जीवनाय (हुवे) स्तुवे (सहस्रकेतुम्) असंख्यातध्वजम् (वनिनम्) वनं बहूदकं विद्यते यस्मिँस्तम्। वनमित्युदकना०। निघं० १। १२। (शतद्वसुम्) शतान्यसंख्यातानि वसूनि यस्मिंस्तम्। अत्र पृषोदरादित्वात् पूर्वपदस्य तुगागमः। (श्रुष्टीवानम्) श्रुष्टीः क्षिप्रगतीर्वनति भाजयति यस्तम्। श्रुष्टीति क्षिप्रना०। वनधातोर्ण्यन्तादच्। (वरिवोधाम्) वरिवः परिचरणं सुखसेवनं दधाति येन तम् (अभि) (प्रयः) प्रीणाति यः सः। औणादिकोऽन् प्रत्ययः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - पूर्वस्मान् मन्त्रादश्विनेत्यनुवर्त्तते। प्रयतमानैर्विद्वद्भिः शिल्पिभिर्यदीष्येत तर्हि ईदृशो रथो निर्मातुं शक्येत ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा, प्रजा, संन्यासी महात्म्यांच्या विद्या विचाराचे आचरण सांगितल्यामुळे या सूक्तच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात मागच्या सूक्ताच्या अंतिम मंत्राने (अश्विना) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. चांगला प्रयत्न करणाऱ्या विद्वान कारागिरांनी इच्छा असेल त्याप्रमाणे सर्व गुणांनी युक्त विमान इत्यादी रथाचे या मंत्रात वर्णन केलेले आहे. तसे ते बनविता येऊ शकते. ॥ १ ॥